गुजरात विकास मॉडल का सच, पानी के लिए कुआं खोदता किसान परिवार

“हमें सरकार पर भरोसा नहीं है, इसलिए हम खुद से कुंआ खोद रहे हैं, पीने के लिए पानी नहीं है.”

ये कहना है सेमाभाई का, इनके मक्के की फसल पूरी तरह सूख गई है.

सेमाभाई के पास दो बैल हैं लेकिन उनका इस्तेमाल खेतों को जोतने में नहीं हो रहा है, बल्कि कुंआ खोदने में किया जा रहा है.

इस काम में सेमाभाई की पत्नी और उनकी बेटी भी मदद कर रहे हैं. पिछले साल उनकी फसल सूख गई थी और इस साल उनका कुंआ भी सूख गया था.

उत्तरी गुजरात के पालनपुर जिले के अमीरगढ़ ब्लॉक के अधिकांश किसानों का यही हाल है. इन सबके खेत सूखे पड़े हुए हैं और फसल की सिंचाई के लिए पानी नहीं है.

सेमाभाई एक छोटे से गांव उपाला खापा में रहते हैं. उनके पास जमीन तो है लेकिन खेती करने के लिए पानी नहीं है. वे दिहाड़ी मजदूर की तरह काम करने को मजबूर हैं.

वे बताते हैं, “मेरे कुंए में पानी नहीं है, इसलिए अब मैं एक कहीं गहरा कुंआ खोद रहा हूं. पहले तो कुंए में थोड़ा पानी था लेकिन इस बार सूखे के चलते पानी ख़त्म हो गया है, पीने तक के लिए पानी नहीं है.”

अमीरगढ़ जिला मुख्यालय पालनपुर से महज 40 किलोमीटर दूर है और उपाला खापा गांव तक पहुंचने के लिए धूल भरी सड़क से गुजरना होता है.

यह एक छोटा सा गांव है, गांव के बाहरी हिस्से में एक सरकारी प्राथमिक स्कूल है. गांव में प्रवेश करते ही सड़क के दोनों तरफ दूर तक खेत ही खेत नजर आते हैं लेकिन इन खेतों में कोई हरियाली नजर नहीं आती.

इन खेतों में कुछ में कुएं मौजूद हैं, कुछ में पुराने तो कुछ में नए. लेकिन इनमें किन्हीं में पानी मौजूद नहीं है.

सेमाभाई ने दिहाड़ी मजदूरी से छुट्टी लेकर कुंए को गहरा करने का काम शुरू किया है. उनकी बेटी और पत्नी इस काम में उनका हाथ बंटा रही है. वहीं आस-पास में उनके बच्चे भी खेल रहे हैं.

बीते साल मानसून में सेमाभाई ने मक्के की फसल लगाई थी लेकिन मक्का नहीं उपजा. वे बताते हैं, “सूखा था, हमारे खेतों में कुछ नहीं हुआ. सरकार से भी कोई मदद नहीं मिली. हमें सरकार पर कोई भरोसा भी नहीं है इसलिए कुद से ही कुंआ खोद रहे हैं.”

सेमाभाई का परिवार अब तक 70-80 फीट तक की खुदाई कर चुका है लेकिन अब तक पानी मिलने के कोई संकेत नहीं मिले हैं. पानी मिलने के लिए अभी कितनी खुदाई और करनी होगी, इसका अंदाजा परिवार को नहीं है.

सरकार ने काम बंद किया

गुजरात के दूसरे हिस्सों में भी कुएं और तालाब सूख रहे हैं. पानी के स्थानीय स्रोत क्यों सूख रहे हैं, इस बारे में स्थानीय कार्यकर्ता नफीसा बारोट बताती हैं, “1970 के दशक में सरकार स्थानी पानी के स्रोतों को बेहतर बनाने का काम करती थी लेकिन 1990 में सरकार का ध्यान जरूरतमंद इलाकों में सप्लाई वाटर पहुंचाने पर शिफ्ट हो गया.”

नफीसा बारोट बताती हैं कि जरूरत स्थानीय जल संसाधनों के देखभाल की थी लेकिन सरकार का ध्यान बड़े पैमाने पर जलआपूर्ति करने वाले प्रोजेक्टों की तरफ हो गया, ऐसे में स्थानीय जल संसाधनों की लगातार उपेक्षा हुई.

बनासकांठा के जिलाधिकारी संदीप सांगले बताते हैं, “किसान खुद से ये काम कर रहे हैं. इस काम के लिए उन्हें सरकार से कोई मदद नहीं मिल रही है.”

जिले में बढ़ते जल संकट के बारे में संदीप कहते हैं, “हम लोग पंप और टैंकर से पानी की आपूर्ति कर रहे हैं. आने वाले दिनों में अमीरगढ़ और दांता के जल संकट से निपटने के लिए हम नई योजनाएं बनाएंगे. इसके लिए हमलोग सर्वे करा रहे हैं.”

सेमाभाई
सेमाभाई, अपनी पत्नी के साथ

किसान दिहाड़ी मजदूर बनने को मजबूर

सेमाभाई के पास खेत है लेकिन खेती करने के लिए पानी नहीं है. ऐसे में वे और उनका परिवार दिहाड़ी मजदूरी करने को मजबूर है.

सेमाभाई की बेटी हरमीबेन कहते हैं, दिन भर मजदूरी करके मैं 250 रुपये कमा लेती है, उससे मैं अपना और अपने बच्चे का ख्याल रखती हूं. मेरे पति ने मुझे छोड़ दिया है. मैं अपने पिता के घर में रहती हूं लेकिन मैं बोझ नहीं बनना चाहती. अभी कुंआ खोदना है तो काम पर नहीं जा पा रहे हैं.

हरमीबेन के तीन बच्चे हैं. सेमाभाई बताते हैं, हमारे पास जमीन तो है लेकिन हम फसल नहीं उगा सकते. ऐसे में हम दिहाड़ी मजदूर की तरह काम करते हैं. मानसून के दिनों में हम दूसरे के खेतों में बंटाईदार के तौरर पर काम करते हैं.

सेमाभाई के मुताबिक बंटाईदार के तौर पर काम करने पर भी कोई फायदा नहीं है क्योंकि अगर फसल सूख गई तो कुछ भी बांटने के लिए नहीं होता है.

सेमाभाई बताते हैं, “अगर मैं समय से कुंआ खोद लेता हूं और अच्छी बारिश हुई तो मैं इस बार अपनी जमीन पर खेती के लिए सोच सकता हूं. ऐसा नहीं हुआ तो फिर दिहाड़ी मजदूरी के साथ साथ बंटाईदार के तौर पर ही काम करना होगा.”

मुश्किल है गुजारा करना

सेमाभाई का परिवार दिहाड़ी मजदूरी से होने वाली आमदनी पर निर्भर है, लेकिन कुंआ खोदने के चलते उनकी आमदनी नहीं हो रही है. सेमाभाई बताते हैं, “मेरे बेटे मजदूरी करने जा रहे हैं. अगर वे काम पर नहीं जाएं तो हमारे पास खाने के लिए कुछ नहीं होगा.”

सेमाभाई के भतीजे धूलो बताते हैं, “हमारे गांव में पानी का टैंकर भी नहीं मिला है. सरकार से कोई मदद नहीं मिली है. कुंआ खोदने के लिए हमें मजदूरी छोड़नी ही पड़ेगी, इसका सिवा दूसरा रास्ता भी नहीं है.”

सीमाभाई, धूलो और परिवार के दूसरे सदस्य बिना किसी विशेष सुरक्षा के ये काम कर रहे हैं, केवल एक रस्सी की मदद से ये लोग ऐसा काम कर रहे हैं और यह खतरनाक हो सकता है.

खुदाई के दौरान मिट्टी और पत्थर मिलते हैं जिन्हें कुंए से बाहर निकालना होता है, इस काम के लिए वे बैलों का इस्तेमाल करते हैं. वे एक पहिए की मदद से रस्सी के सहारे टोकरी नीचे भेजते हैं और मिट्ठी और पत्थर जब भर जाता है तो उसे बैल बाहर खींच लेते हैं.

सेमाभाई की पत्नी और बेटी इस काम में उनकी मदद करते हैं और ये चारों कुंए के लिए काफी मेहनत कर रहे हैं.

सेमाभाई बताते हैं, “हम कुंए को गहरा कर रहे हैं क्योंकि मानसून अगर अच्छा रहा तो ये भर सकता है. लेकिन अभी हमें थोड़े भी पानी का इंतजार है ताकि पीने को पानी मिल पाए.”

सेमाभाई बताते  हैं, “सरकार से हमें कोई मदद नहीं मिल रही है. अगर वाटर टैंकर आता तो हम इस मुश्किल से बच सकते थे.”

वैसे कुंआ खोदने के लिए भी पैसों की जरूरत होती है. जब खुदाई के दौरान सख्त मिट्टी मिलती है तो उसे ब्लास्ट करने तोड़ना होता है. सेमाभाई के मुताबिक ऐसे प्रत्येक ब्लास्ट के लिए कम से कम तीन हजार रूपयों की जरूरत होती है.

सेमाभाई के परिवार को अगर ऐसे ब्लास्ट की जरूरत हुई तो उन्हें काम रोकना पड़ेगा. उनके मुताबिक उनका परिवार दिहाड़ी मजदूरी करके पैसे जमा करेगा, जब ब्लास्ट के लिए पैसे जमा हो जाएंगे तब जाकर फिर से कुंए की खुदाई शुरू होगी.

सेमाभाई बताते हैं, “मेरे चार बेटे दिहाड़ी मजदूरी करते हैं लेकिन ब्लास्ट का सामना खरीदने के लिए हमें भी काम पर जाना होगा. जब हम सब मिलकर पैसे कमाएंगगे तब जाकर कुछ दिनों में कुंए का काम फिर से शुरू कर पाएंगे.”