क्यों मनुस्मृति दलितों और महिला बिरोधी ?

“एक लड़की हमेशा अपने पिता के संरक्षण में रहनी चाहिए, शादी के बाद पति उसका संरक्षक होना चाहिए, पति की मौत के बाद उसे अपने बच्चों की दया पर निर्भर रहना चाहिए, किसी भी स्थिति में एक महिला आज़ाद नहीं हो सकती.”

मनुस्मृति के पांचवें अध्याय के 148वें श्लोक में ये बात लिखी है. ये महिलाओं के बारे में मनुस्मृति की राय साफ़ तौर पर बताती है.

मनुस्मृति में दलितों और महिलाओं के बारे में कई ऐसे श्लोक हैं जिनकी वजह से अक्सर विवादों का जन्म होता है.

पिछले दिनों महाराष्ट्र के राजनेता छगन भुजबल को अज्ञात व्यक्ति का पत्र मिला जिसमें लिखा था, “मनुस्मृति के बारे में मत बोलो नहीं तो तुम्हारा दाभोलकर जैसा हाल होगा.”

भुजबल ने कहा, “मैं इन पत्रों को गंभीरता से नहीं लेता हूं. मैं ऐसी धमकियों की वजह से अपना काम बंद करने नहीं जा रहा हूं. बाबा साहेब आंबेडकर ने मनुस्मृति को जलाकर इस देश को संविधान दिया है जो कि सभी लोगों के बराबरी का अधिकार देता है. अगर मनुस्मृति उन विचारों को वापस लेकर आ रही है जिनकी वजह से हमें हज़ारों सालों तक शोषण झेलना पड़ा तो हम मनुस्मृति को एक बार फिर जलाएंगे. हम इसकी आलोचना करेंगे. मैं किसी से नहीं डरता हूं.”

इससे पहले संभाजी भिड़े ने मनु को संत तुकाराम और संत जनेश्वर से भी महान बताकर विवाद पैदा किया था.

भिड़े एक हिंदूवादी नेता हैं जिनके पश्चिमी महाराष्ट्र में कई अनुयायी हैं. पीएम नरेंद्र मोदी ने साल 2014 के अपने भाषण में संभाजी भिड़े का समर्थन किया था और 2018 के फ़रवरी महीने में भिड़े के साथ एक तस्वीर ट्वीट की थी.

भिड़े अपने कट्टर हिंदूवादी विचारों के लिए जाने जाते हैं और वह खुलकर मनुस्मृति का समर्थन करते हैं. जनवरी 2018 में भीमा कोरेगांव दंगे में उनकी कथित भूमिका सामने आने के बाद उनके ख़िलाफ़ एक शिकायत दर्ज कराई गई थी.

मनुस्मृति में लिखी हुई बातें बीते कई सालों से विवादों की वजह बनी हैं. लेकिन क्या मनुस्मृति सच में इतनी विवादित किताब है?

मनुस्मृति में आख़िर है क्या?

इतिहासकार नराहर कुरुंदकर बताते हैं, “स्मृति का मतलब धर्मशास्त्र होता है. ऐसे में मनु द्वारा लिखा गया धार्मिक लेख मनुस्मृति कही जाती है. मनुस्मृति में कुल 12 अध्याय हैं जिनमें 2684 श्लोक हैं. कुछ संस्करणों में श्लोकों की संख्या 2964 है.” कुरुंदकर अब तक मनुस्मृति पर तीन लेक्चर दे चुके हैं. इन तीनों भाषणों को एक किताब की शक्ल दी गई है जो मनुस्मृति के अंदर की दुनिया के बारे में बताती है. कुरुंदकर मनुस्मृति पर अपनी सोच को बताते हुए कहते हैं, “मैं उन लोगों में शामिल हूं जो मनुस्मृति को जलाने में विश्वास करते हैं.”

मनुस्मृति के फॉर्मैट को समझाते हुए कुरुंदकर कहते हैं, “इस किताब की रचना ईसा के जन्म से दो-तीन सौ सालों पहले शुरू हुई थी. पहले अध्याय में प्रकृति के निर्माण, चार युगों, चार वर्णों, उनके पेशों, ब्राह्मणों की महानता जैसे विषय शामिल हैं. दूसरा अध्याय ब्रह्मचर्य और अपने मालिक की सेवा पर आधारित है.”

“तीसरे अध्याय में शादियों की किस्मों, विवाहों के रीति रिवाजों और श्राद्ध यानी पूर्वज़ों को याद करने का वर्णन है. चौधे अध्याय में गृहस्थ धर्म के कर्तव्य, खाने या न खाने के नियमों और 21 तरह के नरकों का ज़िक्र है.”

“पांचवे अध्याय में महिलाओं के कर्तव्यों, शुद्धता और अशुद्धता आदि का ज़िक्र है. छठे अध्याय में एक संत और सातवें अध्याय में एक राजा के कर्तव्यों का ज़िक्र है. आठवां अध्याय अपराध, न्याय, वचन और राजनीतिक मामलों आदि पर बात करता है. नौवें अध्याय में पैतृक संपत्ति, दसवें अध्याय में वर्णों के मिश्रण, ग्यारहवें अध्याय में पापकर्म और बारहवें अध्याय में तीन गुणों व वेदों की प्रशंसा है. मनुस्मृति की यही सामान्य रूपरेखा है.”

“मनुस्मृति में अधिकार, अपराध, बयान और न्याय के बारे में बात की गई है. ये वर्तमान समय की आईपीसी और सीआरपीसी की तरह लिखी गई है.”

पंजाब यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ाने वाले राजीव लोचन बताते हैं कि ब्रितानी लोगों के भारत आने से पहले इस किताब को क़ानून की किताब के रूप में प्रयोग नहीं किया गया था.

मनुस्मृति को इतनी प्रसिद्धि कैसे मिली?

राजीव लोचन मनुस्मृति के इतिहास को समझाते हुए कहते हैं, “जब ब्रितानी लोग भारत आए तो उन्हें लगा कि जिस तरह मुस्लिमों के पास क़ानून की किताब के रूप में शरिया है, उसी तरह हिंदुओं के पास भी मनुस्मृति है. इसकी वजह से उन्होंने इस किताब के आधार पर मुक़दमों की सुनवाई शुरू कर दी. इसके साथ ही काशी के पंडितों ने भी अंग्रेज़ों से कहा कि वे मनुस्मृति को हिंदुओं का सूत्रग्रंथ बताकर प्रचार करें. इसकी वजह से ये धारणा बनी की मनुस्मृति हिंदुओं का मानक धर्मग्रंथ है.”

ब्राह्मण के प्रभुत्व के लिए मनुस्मृति?

राजीव लोचन बताते हैं, “जब बुद्ध संघों की भारत में ख्याति फैलने लगी थी तो ब्राह्मणों ने प्रभुत्व कम होता देख इस किताब को लिखकर अपने प्रभुत्व को फिर से जमाने की कोशिश की. उन्होंने एक मिथक रचा कि ब्राह्मण का स्थान समाज में सबसे ऊपर है और समाज में ब्राह्मणों और दूसरे लोगों के लिए अलग-अलग नियम हैं.”

“वर्णों के मुताबिक़, इसी वजह से ब्राह्मणों की कम सज़ा मिलती थी लेकिन दूसरे लोगों को कड़ी सज़ा मिलती थी. ये कहा गया कि जो व्यक्ति ग़लत काम करेगा, उसे कड़ी सज़ा का सामना करना पड़ेगा. ये किताब बताती है कि किसी भी स्थिति में ब्राह्मणों का सम्मान किया जाना चाहिए. किसी भी महिला का कल्याण तभी हो सकता है, जब एक पुरुष का कल्याण हो जाए. एक महिला को किसी तरह के धार्मिक अधिकार नहीं हैं. वह अपने पति की सेवा करके स्वर्ग प्राप्त कर सकती है. मनुस्मृति में यही सब लिखा है.”

लेकिन इन विचारों को चुनौती किसने दी?

मनुस्मृति ने शूद्रों के शिक्षा पाने के अधिकार को खारिज कर दिया था. शिक्षा देने की विधि मौखिक हुआ करती थी. ऐसे में कुछ ब्राह्मणों को छोड़कर कोई ये नहीं जानता कि मनुस्मृति आख़िर क्या है. ब्रिटिश राज के दौरान ये किताब क़ानूनी मामलों में इस्तेमाल होने की वजह से ख़ासी चर्चित हो गई. विलियम जोनास ने मनुस्मृति का अंग्रेजी में अनुवाद किया है. इसकी वजह से लोगों को इस किताब के बारे में पता चला.

राजीव लोचन बताते हैं, “महात्मा ज्योतिबा फुले मनुस्मृति को चुनौती देने वाले पहले व्यक्ति थे. खेतिहर मजदूरों, सीमांत किसान और समाज के दूसरे वंचित और शोषित तबकों की सोचनीय हालत देखकर उन्होंने ब्राह्मणों और व्यापारियों की आलोचना की.”

जब आंबेडकर ने जलाई मनुस्मृति

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने 25 जुलाई, 1927 को महाराष्ट्र के कोलाबा ज़िले में (वर्तमान में रायगड) के महाद में सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति को जलाया.

आंबेडकर अपनी किताब ‘फ़िलॉसफ़ी ऑफ हिंदूइज़्म’ में लिखते हैं, “मनु ने चार वर्ण व्यवस्था की वकालत की थी. मनु ने इन चार वर्णों को अलग-अलग रखने के बारे में बताकर जाति व्यवस्था की नींव रखी. हालांकि, ये नहीं कहा जा सकता है कि मनु ने जाति व्यवस्था की रचना की है. लेकिन उन्होंने इस व्यवस्था के बीज ज़रूर बोए थे.”

उन्होंने मनुस्मृति के विरोध को अपनी किताब ‘कौन थे शूद्र’ और ‘जाति का अंत’ में भी दर्ज कराया है.

उस दौर में दलितों और महिलाओं को एक सामान्य ज़िंदगी जीने का अधिकार नहीं था. इसके साथ ही ब्राह्मणों के प्रभुत्व की वजह से जाति व्यवस्था का जन्म हुआ.

डॉ. आंबेडकर बताते हैं कि जाति व्यवस्था एक कई मंजिला इमारत जैसी होती है जिसमें एक मंजिल से दूसरी मंजिल में जाने के लिए कोई सीढ़ी नहीं होती है.

उन्होंने कहा है, “वर्ण व्यवस्था बनाकर सिर्फ कर्म को ही विभाजित नहीं किया गया बल्कि काम करने वालों को भी विभाजित कर दिया.”

मनुवादी और मूलनिवासी

आंबेडकर के मनुस्मृति जलाने के बाद देश भर में कई जगह इस किताब को जलाया गया. इससे अख़बारों में देश और समाज पर मनुस्मृति के प्रभाव जैसे मुद्दों पर चर्चा शुरू हो गई.

ये चीज़ें भारत की स्वतंत्रता के बाद भी चलती रहीं.साल 1970 में कांशी राम ने बामसेफ का गठन किया और ऐलान किया कि समाज दो हिस्सों में बंटा है जिसमें से एक हिस्सा मनुवादी हैं और दूसरा हिस्सा मूलनिवासी है. जेएनयू में पढ़ाने वाले प्रोफेसर विवेक कुमार कहते हैं, “कांशी राम कहा करते थे कि जातियों की रचना मनु स्मृति के आधार पर हुई है. इससे असमानताओं वाले समाज की रचना हुई. इस वजह से ये समाज छह हज़ार जातियों में बंट गया.”

मनुवाद का समर्थन किसने किया?

मनुवाद का समर्थन करने वालों की संख्या भी कम नहीं है.

इतिहासकार नरहर कुरुंदकर समझाते हुए कहते हैं, “मनुस्मृति के समर्थकों का एक गुट कहता हैं कि इस सृष्टि की रचना ब्रह्मा ने की थी और दुनिया का कानून प्रजापति-मनु-भृगु की परंपरा से आया है. ऐसे में इसका सम्मान किया जाना चाहिए.” कुरुंदकर अपनी किताब में इसके बारे में बताते हैं, “मनुस्मृति का बचाव के लिए ये भी कहा जाता है कि स्मृतियां वेदों पर आधारित हैं. और मनुस्मृति भी वेदों के हिसाब से ही है. इस वजह से इसे वेदों की तरह ही सम्मान मिलना चाहिए. शंकराचार्य के साथ-साथ दूसरे धर्मगुरुओं ने भी इसी आधार पर इसका बचाव किया. मनुस्मृति के आधुनिक समर्थक कहते हैं कि इस किताब के कुछ हिस्सों को छोड़ दिया जाए तो ये किताब समाज के कल्याण की बात करती है.”

“कानून लिखने वाले पहले व्यक्ति”

विवादित नेता संभाजी भिड़े ने अपने एक भाषण में दावा किया है कि मनु ने विश्व कल्याण के लिए ये किताब लिखी और वह एक बड़े क़ानून विशेषज्ञ थे. कुछ लोग कहते हैं राजस्थान हाई कोर्ट में उनकी एक मूर्ति भी लगी है. राजस्थान से आने वाले दलित एक्टिविस्ट पी. एल. मीथारोथ ने बताते हैं, “जयपुर बार एसोशिएसन ने ये मूर्ति लगवाई है. उन दिनों में बार एसोशिएसन में ज़्यादातर वकील ऊंची जातियों से हुआ करते थे. ऐसे में समर्थकों ने दावा किया कि मनु कानून लिखने वाले पहले शख़्स थे, ऐसे में हाई कोर्ट परिसर में उनकी मूर्ति लगना जायज़ है.”

सनातन संस्था भी मनुस्मृति का समर्थन करती है. इस संस्था ने एक किताब प्रकाशित की है जिसका शीर्षक है “मनुस्मृति को जलाया जाए या अध्ययन किया जाए.” इस संस्था का दावा है कि एक समय में समाज मनुस्मृति के हिसाब से ही चलता था. सनातन संस्था एक कट्टर हिंदूवादी संगठन है जिसके मुखिया विवादित हिप्नोथेरेपिस्ट डॉ. जयंत अठावले हैं. इस संस्था से जुड़े कुछ लोगों के नाम पर कथित रूप से गोवा और महाराष्ट्र में हुए बम धमाकों से जुड़े हुए हैं. इस संस्था के कुछ लोग तर्कवादी नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या में अहम संदिग्ध के रूप में दर्ज हैं. सनातन संस्था ने ये भी कहा है कि जर्मन दार्शनिक ‘नीचा’ इस किताब से काफ़ी प्रभावित हुए थे और इसमें कहीं भी जाति व्यवस्था का ज़िक्र नहीं है.

आधुनिक शिक्षा से आधुनिक दिमाग

कुरुंदकर कहते हैं, “आधुनिक शिक्षा इन लोगों के लिए आधुनिक दिमाग़ की रचना नहीं कर सकी. इसलिए ये लोग परंपरा को मानने वाले और रूढ़िवादी बने रहे. आधुनिक शिक्षा ने परंपराओं को मानते रहने के लिए नए तर्क दिए.”

“डॉक्टर आंबेडकर को ऐसे लोगों पर ग़ुस्सा आता था. उन्हें लगता था कि शिक्षा व्यवस्था पारंपरिक दिमाग़ को बदलने में नाकामयाब साबित हुई है. इसकी जगह रूढ़िवादी लोगों ने आधुनिक शिक्षा को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया. आंबेडकर सोचते थे कि यही लोग जाति व्यवस्था और पाखंडियों के संरक्षक हैं.”